Thursday 5 June 2008

वह छू गई मुझे


कल
वह छू गई मुझे
अपने धानी आंचल को झटकती हुई
एक खुशबू भटकती रही
पोर पोर में रच बस गई
उस की सुगन्‍ध
उस की रेशमी स्‍मृतियां
क्षितिज के सुर्ख गालों पर
लिख गई एक इबारत
गुम्‍बज के शिखर पर
आज उस की प्रतीक्षा में
खडा हूं सौन्‍दर्य उपासक की तरह
नहीं लौटी है अभी तक
उसी राह से वह
लगता है
वह उन्‍हीं पहाडी खण्‍डहरों में
खो गई है कहीं
कुर्बान हो गई है
मग्‍न और जीर्ण स्‍मृतियां
मेरे भीतर चमकने लगी हैं
और चांद काव्‍यात्‍मक लगने लगा है
देवदार दबी दबी आवाजों में
फुसफुसाने लगे हैं
मेरी इस हरकत पर
उस अनिग्रह पहाडी हवा से
इश्‍क हो गया है मुझे
-रमेश सोबती

3 comments:

Anonymous said...

behad khubsurat bhav

बालकिशन said...

क्या खूब कहा है.
कविता मे जिस सहजता से भाव और शब्द आए है कोई भी कह सकता है कि उसीके लिए लिखी गई है.
बधाई.

Udan Tashtari said...

रमेश सोबती जी की रचना बहुत भावपूर्ण है. आभार आपका इसे पेश करने के लिए.