कल
वह छू गई मुझे
अपने धानी आंचल को झटकती हुई
एक खुशबू भटकती रही
पोर पोर में रच बस गई
उस की सुगन्ध
उस की रेशमी स्मृतियां
क्षितिज के सुर्ख गालों पर
लिख गई एक इबारत
गुम्बज के शिखर पर
आज उस की प्रतीक्षा में
खडा हूं सौन्दर्य उपासक की तरह
नहीं लौटी है अभी तक
उसी राह से वह
लगता है
वह उन्हीं पहाडी खण्डहरों में
खो गई है कहीं
कुर्बान हो गई है
मग्न और जीर्ण स्मृतियां
मेरे भीतर चमकने लगी हैं
और चांद काव्यात्मक लगने लगा है
देवदार दबी दबी आवाजों में
फुसफुसाने लगे हैं
मेरी इस हरकत पर
उस अनिग्रह पहाडी हवा से
इश्क हो गया है मुझे
-रमेश सोबती
3 comments:
behad khubsurat bhav
क्या खूब कहा है.
कविता मे जिस सहजता से भाव और शब्द आए है कोई भी कह सकता है कि उसीके लिए लिखी गई है.
बधाई.
रमेश सोबती जी की रचना बहुत भावपूर्ण है. आभार आपका इसे पेश करने के लिए.
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