Saturday 28 June 2008

तेरी याद

कल मिली थी वो रास्‍ते में
पूछ रही थी
भूल गए
मैंने कहा
भूला कहां हूं
कोशिश कर रहा हूं
तुम्‍हें भुलाने की
उन तमाम यादों की
जो अनायास ही
आ जाती हैं
और फिर
दर्द की एक बदली सी छा जाती है
कोशिश कर रहा हूं
तुम्‍हें भुलाने की
सोते समय नहीं करता हूं मैं तुम्‍हे याद
बस आंखों के सामने आ जाते हो तुम
तो आ जाती है तुम्‍हारी याद
आ जाता है याद वो तेरा हंसना
छोटी छोटी बातों पर गुस्‍सा करना
बारिश में भीगते हुए जाना
कहीं नहीं जाना
फिर भी जरूरी काम बताना
को‍शिश कर रहा हूं
तुम्‍हें भुलाने की
अबकी बरसात में
नहीं किया मैंने तुम्‍हें याद
वो तो बस यूं ही
पेड के पत्‍तों पर गिरी
बारिश की बूंद ने
दिला दी तुम्‍हारी याद
कुछ बच्‍चों को भीगता देख
एक आह निकली कि काश...
लेकिन याद नहीं किया मैने
कोशिश कर रहा हूं
तुम्‍हें भुलाने की

Friday 27 June 2008

खून पसीना सियाही

मजदूर इंटें पत्‍थर उठा रहे
मिस्‍त्री चिनाई कर रहे
मेरा सियाही की कमाई से
मकान बन रहा धीरे धीरे
साथ साथ मैं भी बन रहा
बनता मकान बंदे को
नया जहान देता
बनता मकान नया ज्ञान देता
सियाही की कमाई से बनते मकान ने मुझे बताया
कि किराए के मकान की दीवार में
मेरे कील ठोंकने पर
मकान मालिक की छाती क्‍यों फटती थी
उसका मकान पसीने की कमाई का
मेरे बच्‍चे को मामूली चोट लगने पर
पत्‍नी की आंखों में
छमछम आंसू बहते
मैं खीझता
मैं खीझता तो मुझे समझाता
यह सियाही की कमाई से बनता मकान
कि भले मनुष्‍य खीझ मत
बच्‍चे मांओं के खून की कमाई से बने हैं
मेरा मकान बनता धीरे धीरे
बनता मकान बहुत ज्ञान देता
-जसवंत जफर

Tuesday 24 June 2008

वह आदमी

कफन में लिपटा
वह आदमी
जो कभी भी
किसी को
दुख नहीं देता था
आज चला गया अकेला
चुप बिल्‍कुल चुप
इस जग से
तोड कर तमाम
रिश्‍तों नातों को
छोड गया तन्‍हा
अपने परायों को
आज दे गया इतना
दुख भला कैसे
ये तो वही आदमी था
जो कभी भी
किसी को
दुख नहीं देता था
कफन में लिपटा
वह आदमी

Sunday 22 June 2008

अंखियां नू चैन ना आवे ...

नुसरत फतेह अली खान सूफी गायकी के सरताज रहे हैं। पाकिस्‍तान में 13 अक्‍टूबर को जन्‍मे उस्‍ताद साहब ने कितनी ही कव्‍वली अपनी आवाज में देकर इस दुनिया में कव्‍वाली पसंद लोगों को अपनी आवाज का लोहा मानने को मजबूर कर दिया। यहां पर मैं भी एक कोशिश कर रहा हूं उनकी गाई हुई कव्‍वाली "अंखियां नू चैन ना आवे, सजना घर आजा" आशा करता हूं कि आपको पसंद आएगी...
नुसरत जी की आवाज में यहां से सुनें

हो हो हो अंखियां नू चैन ना आवै, सजना घर आजा
हरदम तेरी याद सतावे, हुण फेरा पा जा
दर्दां दी मारी, रो-रो के हारी
तांघां तेरियां ने मैनु मारेया, प्‍यारेया
अंखियां नू चैन ना...

हो हो हो सजना मेरे दर्द वंडा
मेरी उजडी जोग बंधा
अपना बन के घर नू आ
हुण तकदी नू सीने ला
छड के तू तुर गइयां दूर वे
केडी गल्‍ल होयां मजबूर वे
तकदी है रांह तेरे
मुक जांदे सां मेरे
आजा मेरे दिल दे सहारेया
अंखियां नू चैन ना आवे ...

तेरी याद सतोंदी ए
राती नींद ना ओंदी ए
दूरी बहुत रवोंदी ए
कल्‍ली जिंद कुरलोंदी ए
किसे दा वे इंज नइयों करीदा
सजना वे रब कोलों डरीदां
करां तेनु याद वे
सुन फरियाद वे
जियाटेया वे बे एतबारियां
अंखियां नू चैन ना आवे ...

हो आ
सुख तेरे तो वारे ने
रोंदे नैन वेचारे ने
तेरे ज्‍यूठे लारे ने
करदे गल्‍लां सारे ने
होवे ना जे अखियां तो लोए वे
केडा बै के दुख सुख फोल वे
कदरां ना पायां तू
तोड ना निभाइयां तू
तेरे पीछे सब कुछ हारेयां
अंखियां नू चैन ना ...

जवानी का हंसी ...

जवानी का हंसी सपना तुझे जब याद आएगा
सिसककर टूटी खटिया पर पड़ा तू भुनभुनाएगा
पुराना ठरकी है बूढ़ा न हरगिज बाज आएगा
दिखी लड़की तो नकली दांत से सीटी बजाएगा
निकल जाए हमारा दम बला से चार बूंदों में
मग़र हमको हकीम अपनी दवा पूरी पिलाएगा
पहन पाया न बरसों से बिचारा इक नई निक्कर
बनेगा जब भी दूल्हा वो नई अचकन सिलाएगा
है अपना दूधिया जालिम मसीहा है मिलावट का
भले ही कोसते रहिए हमें पानी पिलाएगा
जड़ें काटेगा पीछे से जो हँस के सामने आया
खुदा ने दी न चमचे को वो दुम फिर भी हिलाएगा
मिली हैं हूर जन्नत में मगर मिलती नहीं लैला
खुदेगी कब्र जब तेरी तो चांद अपनी खुजाएगा
सनमखाने में दीवाने सजा ले अपने वीराने
खिला दे टॉफी बुलबुल को मज़ा जन्नत का आएगा
पुराना-सा फटा, मैला लिए हाथों में इक थैला
बढ़ा के अपनी दाढ़ी मंचों पर गजल तू गुनगुनाएगा
मिले मेले में दुनिया के थके, हारे, बुझे चेहरे
करामाती है बस नीरव जो रोतों को हँसाएगा।
-विजय जैन

Saturday 21 June 2008

अब ना मैं उदास होता ...

जब मैं उदास होता
आईने के सामने जाकर
खडा हो जाता
और
ढूंढता उस उदासी को
जो मुझे उदास करती
देखता आईने की आंखों से
और पाता कि
उदासी तो मेरी आंखों
में ही थी और
मैं फिर से
उदास हो जाता
क्‍योंकि मैं तो
उदास था ही
मेरे साथ मेरे आईने
की आंखें भी
मेरी आंखों की
उदासी देख
और ज्‍यादा उदास हो गई
अब ना मैं उदास होता हूं
और ना
आईने के सामने जाकर
खडा होता हूं
और अपने आईने को भी
उदास नहीं करता हूं

बेदर्द


मैंने निचोड़कर दर्द
मन को
मानो सूखने के ख्याल से
रस्सी पर डाल दिया है

और मन
सूख रहा है

बचा-खुचा दर्द
जब उड़ जायेगा
तब फिर
पहन लूँगा मैं उसे

माँग जो रहा है मेरा
बेवकूफ तन
बिना दर्द का मन !

-भवानीप्रसाद मिश्र

Wednesday 18 June 2008

कदम मिलाकर चलना होगा...


कई दिन से सोच रहा था कि मैं भी कुछ लिखूं लेकिन नाकामयाब रहा। कुछ समझ में नहीं आया। अनायास बैठे-बैठे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की लिखी कविता की दो लाईन मेरे जहन में आई तो मैंने सोचा क्‍यों ना इन्‍हें ही आपके सामने प्रस्‍तुत करूं। यह मेरी एक कोशिश है कृप्‍या अपने विचार देकर कृतार्थ जरूर करें। आप श्री वाजपेयी जी की जीवनी यहां पर पढ सकते हैं।

तो आपके सामने पेश है उनकी लिखी एक कविता

बाधाएं आती हैं आएं,
घिरें प्रलय की ओर घटाएं,
पांवों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्‍वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

हास्‍य रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्‍य बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्‍मानों में,
उन्‍नत मस्‍तक, उभरा सीना,
पीडाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

सम्‍मुख फैला अगर ध्‍येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावन बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

अंत की चार लाईनों में कवि ने जीवन के बारे में क्‍या कुछ कह दिया है

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्‍यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

Tuesday 17 June 2008

चार लाईना


काश मैं भी परी होती...
काश मैं भी परी होती
होते सुंदर पर मेरे भी
लेती थाह सागर की क्षण में
करती सैर गगन की मैं भी
काश मैं भी परी होती
होते सुंदर पर मेरे भी
सुनते हैं सुंदर है देश परी का
होती मैं भी खुश देख देश परी का
जादुई छडी होती हाथ मेरे भी
करती मैं भी दूर गरीबी
नहीं देखती लोगों को भूखों मरते
काश मेरे भी पर होते


नंगे पैर...
नंगे पैर
चिथडे तन पर
बिछौना धरा का
ओढना है अंबर

खुश होने को मजबूर हूँ...
सोचता हूं लिखने की
आता नहीं है लिखना
आदत से मजबूर हूं
पढता हूं कमेंट आपके
खुश होने को मजबूर हूं

Saturday 14 June 2008

आता है याद जब वो जमाना ...

वो बारिश के पानी में
कागज की कश्‍‍ती तैराना
और फिर
कश्‍‍ती के डूबने पर
दोस्‍तों का ताली बजाना
डूब गई - डूब गई कहकर
वो चीखना चिल्‍लाना
करता है बचपन की यादों को ताजा
वो बारिश के पानी में
कागज की कश्‍‍ती तैराना
कश्‍ती में वो चींटी को बिठाना
फिर कश्‍ती को आगे बढाना
आता है याद जब वो जमाना
वो बारिश के पानी में
कागज की कश्‍ती तैराना

Thursday 12 June 2008

मेरा बेटा अभी छोटा ...

मेरा बेटा अभी छोटा है
घुटमन चलता है
चलना सीखा नहीं है अभी
तमन्‍ना दौडने की है
दांत निकले नहीं पूरे
कि गन्‍ना चूसना चाहता है
मेरा बेटा अभी छोटा है
पैरों की पाजनियां छम छम करके
पकड दीवार का कोना
सोचता है
बहुत चल लिया
लूं थोडा सुस्‍ता
अगले ही पल
बिजली की मानिंद
उठ खडा हुआ
कहीं जाने की जल्‍दी है
एक नजर दौडाई मुस्‍करा कर
लगा ऐसा कि कह रहा हो
मैं भी चलने लगा हूं
चाहता हूं मैं भी दौडना
अभी घुटमन चलता है
मेरा बेटा अभी छोटा है

मिल गया खजाना कुबेर ...

आधी रात को बेटे ने
सोते से जाग
मुस्‍कुरा कर देखा
दूर हो गई चिंताएं
मिल गया खजाना कुबेर का

नहीं करता मैं याद ...


नहीं करता मैं तुमको याद

क्‍योंकि याद करने के लिए
पडता है भूल जाना
कर नहीं सकता मैं ये
दुष्‍कर्म अपना

जब तुम नहीं थे जिंदगी में मेरी

करता था उसको याद मैं

उसको आज भी करता हूं याद मैं

क्‍योंकि याद करने के लिए

पडता है भूल जाना

मां, बाप, भाई, बहन और बच्‍चे

कभी भी नहीं करता किसी को याद मैं

क्‍योंकि याद करने के लिए पडता है भूल जाना

तुम भी मत करना कभी

भूले से याद मुझको

क्‍योंकि याद करने के लिए

पडता है भूल जाना

Sunday 8 June 2008

हाय महंगाई...


हमारे भारत देश में पिछले चार सालों में पैट्रोल और डीजल में करीब 15 व 12 रुपए की बढोतरी हुई है। शाबास हमारी भारत सरकार। आखिर अब साबित होने लगा है कि देश में महंगाई थमने का नाम नहीं लेगी। यह महंगाई तो सुरसा राक्षसी की तरह मुंह खोले खडी है। अब यहीं पर देख लीजिए हमारी एसएमएस सरकार ने पैट्रोल हाल ही में 5 रूपए बढाकर जनमानस को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। डीजल के दामों में भी बढोतरी कर दी है। बहुत अच्‍छा कदम रहा है ये भी। बेचारे किसान भाई जो अभी तक सोचते थे कि खेतों के लिए पानी इंजन से ही दे देंगे क्‍योंकि बिजली पहले तो आती ही नहीं बामुश्किल दिन में 3-4 घंटे ही आती है और वैसे भी महंगी ही होती है लेकिन अब सरकार ने किसानों का यह संशय भी खत्‍म कर दिया क्‍योंकि अब तो डीजल भी बिजली जैसा ही महंगा साबित होगा। हमारे देहात में एक कहावत है कि "खा ले या बूंक ले जाना तो पेट में ही है" तो चाहे अब खेतों के लिए पानी बिजली से दो या डीजल इंजन से दो महंगा तो दोनों ही हैं। चलो खैर कुछ भी सही शायद सरकार ने अपना बजट देखकर ही यह कदम उठाया है। ठीक है भाई अब कर भी क्‍या सकते हैं। हां एक काम तो अब कर ही सकते हैं या तो हम कोई बडे अफसर बन जाएं कि जो गाडी पेट्रोल से चलेगी उसका खर्चा कम्‍पनी या सरकार उठा ले तो चलती रहे वरना भाई फिर से ही हमें तो लग रहा है कि हमें तो अपनी रामप्‍यारी का ही दामन थामना पडेगा। अब भाई ऐसा तो कर नहीं सकते कि जाकर वेजेनुएला या सउदी अरब से कुछ पेट्रोल खरीद लाएं मानां कि वहां पेट्रोल 2 रुपए और 5 रूपए लीटर है लेकिन इतनी गाडी तो हमारे पास हैं नहीं कि पेट्रोल लाएं और उसका खर्चा भी वहन कर सकें। खैर अब देखते हैं कैसे चलती है अपनी गाडी अब 55 रूपए लीटर में या तो गाडी ही रोड पर नहीं तो हम ही आ जाएंगे रोड पर रही सही कसर निकाल दी गैस पर चलो जैसे तैसे पेट्रोल की टेंशन खत्‍म की चाय पीने के इंतजार में बैठे तो बैठे ही रह गए। भाई सिलेंडर खत्‍म हो गया। चलो सिलेंडर लेने जाकर पता चला कि भाईसाहब जी अमूमन तो सिलेंडर है नहीं फिर भी अगर मिलेगा तो अब 500 का मिलेगा। मैने कहा भाई क्‍यूं अब तक तो आप मुझे 400 का ही देते थे। तो जनाब बोले अब तक मैं आपको सिलेंडर 100 रूपए ब्‍लैक में देता था। 300 का तो सिलेंडर था ही 100 रूपए ब्‍लैक के हो गए चार सौ लेकिन 50 रूपए अब एसएमएस ने भी तो बढा दिए। मैंने कहा तो भाई उस हिसाब से भी तो 450 ही हुए ना तो जनाब कहने लगे भाई महंगाई का जमाना है मेरे घर का सिलेंडर भी खत्‍म होने वाला है अब जब डीजल पैट्रोल बढने पर बस वाले आटो वाले अपना किराया बढा सकते हें तो मैं अपना भाव नहीं बढा सकता क्‍या? तो भाई अब क्‍या करें बडी उलझन हो गई। हमने तो अपने घर में मार्बल डलवा दिया हमें क्‍या पता था कि गैस के दाम गैस के साथ इतने उपर उठ जाएंगे कि सिलेंडर हाथ भी नहीं आए।

Thursday 5 June 2008

वह छू गई मुझे


कल
वह छू गई मुझे
अपने धानी आंचल को झटकती हुई
एक खुशबू भटकती रही
पोर पोर में रच बस गई
उस की सुगन्‍ध
उस की रेशमी स्‍मृतियां
क्षितिज के सुर्ख गालों पर
लिख गई एक इबारत
गुम्‍बज के शिखर पर
आज उस की प्रतीक्षा में
खडा हूं सौन्‍दर्य उपासक की तरह
नहीं लौटी है अभी तक
उसी राह से वह
लगता है
वह उन्‍हीं पहाडी खण्‍डहरों में
खो गई है कहीं
कुर्बान हो गई है
मग्‍न और जीर्ण स्‍मृतियां
मेरे भीतर चमकने लगी हैं
और चांद काव्‍यात्‍मक लगने लगा है
देवदार दबी दबी आवाजों में
फुसफुसाने लगे हैं
मेरी इस हरकत पर
उस अनिग्रह पहाडी हवा से
इश्‍क हो गया है मुझे
-रमेश सोबती