Wednesday, 9 July 2008

क्‍या करते

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।।
भरी महफिल में जब उन्होंने न पहचाना हमको।
नजर हम अपनी झुकाते नहीं तो क्या करते।।
उनके दुपट्टे में लगी आग न हमसे देखी जाती।
हाथ हम अपना जलाते नहीं तो क्या करते।।
दोस्तों ने जब सरे राह छोड दिया मुझको।
तब हम गैरों को बुलाते नहीं तो क्या करते।।
किस मुददत से वो देख रहा था राह मेरी।
वादा हम अपना निभाते नहीं तो क्या करते।।
चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।
विजय जैन

5 comments:

seema gupta said...

very interesting , good thoughts.

कौन सुनता है टूटे दिलों के अफ़साने यहाँ,
हाले दिल तुमसे ना छुपाते तो क्या करते,
हम बदनसीबों को एक सावन भी नसीब न हुआ
अपने आसुंओं से ख़ुद को ना भीगाते तो क्या करते"

Anonymous said...

bhut sundar. badhai ho. jari rhe.

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत ही मनभावन रचना..


भरी महफिल में जब उन्होंने न पहचाना हमको।
नजर हम अपनी झुकाते नहीं तो क्या करते।।

किस मुददत से वो देख रहा था राह मेरी।
वादा हम अपना निभाते नहीं तो क्या करते।।

बधाई स्वीकारें..


***राजीव रंजन प्रसाद

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

Sachin Gupta said...

Nice lines Mohan
keep it up