Tuesday, 30 September 2008

नंगे पैर













नंगे पैर
निर्वस्‍त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...






कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है
कर दिया किस्‍मत ने
दाने दाने को मोहताज
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...





अब देखना है जिंदगी में
क्‍या क्‍या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्‍वर शरीर से
कोई परवाह नहीं
जो होगा नसीब में इस मुकद्दर के
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...

26 comments:

Deep Jagdeep said...

mohan ji aap ke paas apki kala ke makhmali jutey hai jineh pehan kar aap har us mushkil ko rondte huye aagey barte jayenge. phir apke pass to kavitayon ka chhata hai koi mousam asar nahi kar sakta aap par.

Vinay said...

पढ़ते समय यूँ लगा मानो वास्तविकता को शब्द मिल गये...

रंजू भाटिया said...

कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है

दर्द छलक उठा है ज़िन्दगी का इस रचना में ..बहुत करीब लगी या सच के

शायदा said...

बहुत अच्‍छा लिख रहे हो मोहन। इस संवेदनशीलता को बनाए रखना।

N Navrahi/एन नवराही said...

यार, अच्‍छी कविता लिखने लगे हो

राज भाटिय़ा said...

मेरी तो आह ही निकल गई.. भगवान सब को अच्छा रखे.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

क्या बात है!! क्या कहें!!

seema gupta said...

नंगे पैर
निर्वस्‍त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...

" kya khun, chitron ne bhut vichlit kiya hai, subse upper walee tasveer mano dil mey dukh ka tufan udaa gyee, bhut sachha or marmik chitran kiya hai shabon or chitron ke dvara, ek aisa sach jo jinda hai magar hum logon ko deekaee nahee daita, aise lacharee mey bhee log jine ko majbur hain, bhut marmik or sachee rachna'

regards

डॉ .अनुराग said...

मन भारी सा हो गया है मोहन जी

makrand said...

फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
great work dear
regards

मोहन वशिष्‍ठ said...

आपने यहां आकर मुझे अपना आर्शिवाद रूपी कमेंट दिया और मेरी पीठ थपथपाकर मुझे और अच्‍छा लिखने की जो हौसलाफजाई की है उसके लिए मैं आप सभी का बारंबार धन्‍यवादी हूं

योगेन्द्र मौदगिल said...

ये कैसा दौर कि साया करीबी नहीं
या खुदा गरीबी दे पर बदनसीबी नहीं

Nitish Raj said...

लगता है जो देखा उसको कलम से पन्नों पर उड़ेल दिया। बहुत बढ़िया।

* મારી રચના * said...

कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है


^ bas itna kafi hai.... aur kya kahe taarif mai...

Mumukshh Ki Rachanain said...

भाई मोहन जी,

पैसा कमाना ही जिन्दगी नही,
इंसानियत दिखाना जिन्दगी है
जो आया उसे सफर तो तय करना ही पड़ेगा
भले ही नंगे पैर, पर कर्म तो करना ही पड़ेगा

आपने जो चित्र दिखे, भले ही जो इशारा करें, पर वो भी अपने सामर्थ्य अनुसार कर्म तो कर इंसानियत का फर्ज तो उन लोंगों से बेहतर निभा रहे हैं, जो अपनी चालाकियों से लोगों को लुट रहे हैं, बन्दूक -गोली चला कर आतंकवाद फैला रहे हैं, सरकारी ओहदे पर होते हुवे रिश्वतखोरी में व्यस्त हैं, डाक्टरी पेशे में होते हुवे किडनी का व्यापर कर रहे हैं आदि-आदि.............................
एक अच्छी रचना प्रस्तुत करने के लिए बधाई स्वीकार करें.
चन्द्र मोहन गुप्त

PREETI BARTHWAL said...

सच में मोहन जी आपकी रचना बहुत ही भावुक है।
अब देखना है जिंदगी में
क्‍या क्‍या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्‍वर शरीर से
कोई परवाह नहीं
जो होगा नसीब में इस मुकद्दर के
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...

अति सुन्दर

भूतनाथ said...

बहुत पीडा दायक है ! ऐसा लगता है ईश्वर के सामने सब लाचार हैं !
फ़िर भी ............

ताऊ रामपुरिया said...

अब देखना है जिंदगी में
क्‍या क्‍या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्‍वर शरीर से
कोई परवाह नहीं

जिन्दगी का संबल बना रहे ! बहुत मार्मिक है ये सब !

शोभा said...

नंगे पैर
निर्वस्‍त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
बहुत सुंदर लिखा है. बधाई स्वीकारें.

Anonymous said...

kya kahun sir, bas dhnyabad

वर्षा said...

ऐसी कितनी ही तस्वीरें हमारे ईर्द-गिर्द रोज घूमती हैं, जिन्हें हम देखते हैं और निकल जाते हैं।

parul said...

ek such se rubaro karvaya h

parul said...

ek such se rubaro karvaya h
bhaut thik likha h

Vinay said...

Vijaydashmi ke din par haardik shubhakaamanaayein!

रंजना said...

सत्य कहा यह भी जीवन ही है........
अत्यन्त मार्मिक.......मन भिंगो गई पंक्तियाँ और प्रस्तुतीकरण.........बहुत बहुत सुंदर लिखा है आपने.आभार.....

Girish Kumar Billore said...

मोहन जी
सच मार्मिक चित्र एवं शब्द संयोजनाएं