नंगे पैर
निर्वस्त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है
कर दिया किस्मत ने
दाने दाने को मोहताज
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
अब देखना है जिंदगी में
क्या क्या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्वर शरीर से
कोई परवाह नहीं
जो होगा नसीब में इस मुकद्दर के
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
26 comments:
mohan ji aap ke paas apki kala ke makhmali jutey hai jineh pehan kar aap har us mushkil ko rondte huye aagey barte jayenge. phir apke pass to kavitayon ka chhata hai koi mousam asar nahi kar sakta aap par.
पढ़ते समय यूँ लगा मानो वास्तविकता को शब्द मिल गये...
कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है
दर्द छलक उठा है ज़िन्दगी का इस रचना में ..बहुत करीब लगी या सच के
बहुत अच्छा लिख रहे हो मोहन। इस संवेदनशीलता को बनाए रखना।
यार, अच्छी कविता लिखने लगे हो
मेरी तो आह ही निकल गई.. भगवान सब को अच्छा रखे.
धन्यवाद
क्या बात है!! क्या कहें!!
नंगे पैर
निर्वस्त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
" kya khun, chitron ne bhut vichlit kiya hai, subse upper walee tasveer mano dil mey dukh ka tufan udaa gyee, bhut sachha or marmik chitran kiya hai shabon or chitron ke dvara, ek aisa sach jo jinda hai magar hum logon ko deekaee nahee daita, aise lacharee mey bhee log jine ko majbur hain, bhut marmik or sachee rachna'
regards
मन भारी सा हो गया है मोहन जी
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
great work dear
regards
आपने यहां आकर मुझे अपना आर्शिवाद रूपी कमेंट दिया और मेरी पीठ थपथपाकर मुझे और अच्छा लिखने की जो हौसलाफजाई की है उसके लिए मैं आप सभी का बारंबार धन्यवादी हूं
ये कैसा दौर कि साया करीबी नहीं
या खुदा गरीबी दे पर बदनसीबी नहीं
लगता है जो देखा उसको कलम से पन्नों पर उड़ेल दिया। बहुत बढ़िया।
कहने को तो जिंदगी है
लेकिन
जीने के नाम पर
कुछ भी बाकी नहीं है
^ bas itna kafi hai.... aur kya kahe taarif mai...
भाई मोहन जी,
पैसा कमाना ही जिन्दगी नही,
इंसानियत दिखाना जिन्दगी है
जो आया उसे सफर तो तय करना ही पड़ेगा
भले ही नंगे पैर, पर कर्म तो करना ही पड़ेगा
आपने जो चित्र दिखे, भले ही जो इशारा करें, पर वो भी अपने सामर्थ्य अनुसार कर्म तो कर इंसानियत का फर्ज तो उन लोंगों से बेहतर निभा रहे हैं, जो अपनी चालाकियों से लोगों को लुट रहे हैं, बन्दूक -गोली चला कर आतंकवाद फैला रहे हैं, सरकारी ओहदे पर होते हुवे रिश्वतखोरी में व्यस्त हैं, डाक्टरी पेशे में होते हुवे किडनी का व्यापर कर रहे हैं आदि-आदि.............................
एक अच्छी रचना प्रस्तुत करने के लिए बधाई स्वीकार करें.
चन्द्र मोहन गुप्त
सच में मोहन जी आपकी रचना बहुत ही भावुक है।
अब देखना है जिंदगी में
क्या क्या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्वर शरीर से
कोई परवाह नहीं
जो होगा नसीब में इस मुकद्दर के
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
अति सुन्दर
बहुत पीडा दायक है ! ऐसा लगता है ईश्वर के सामने सब लाचार हैं !
फ़िर भी ............
अब देखना है जिंदगी में
क्या क्या खेल हैं मुकद्दर के
कब मिलेगी मुक्ति इस नश्वर शरीर से
कोई परवाह नहीं
जिन्दगी का संबल बना रहे ! बहुत मार्मिक है ये सब !
नंगे पैर
निर्वस्त्र तन
बेकाबू मन
पर
फिर भी
विचर रहा हूं
इस धरा पर
नंगे पैर...
बहुत सुंदर लिखा है. बधाई स्वीकारें.
kya kahun sir, bas dhnyabad
ऐसी कितनी ही तस्वीरें हमारे ईर्द-गिर्द रोज घूमती हैं, जिन्हें हम देखते हैं और निकल जाते हैं।
ek such se rubaro karvaya h
ek such se rubaro karvaya h
bhaut thik likha h
Vijaydashmi ke din par haardik shubhakaamanaayein!
सत्य कहा यह भी जीवन ही है........
अत्यन्त मार्मिक.......मन भिंगो गई पंक्तियाँ और प्रस्तुतीकरण.........बहुत बहुत सुंदर लिखा है आपने.आभार.....
मोहन जी
सच मार्मिक चित्र एवं शब्द संयोजनाएं
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