Wednesday 4 February 2009

ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी















ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
जो अभी मासूम है
अभी तो वह भोली है
जिन्दगी को समझना अभी बाकी है
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी

रात की हल्‍की हल्‍की सर्दी
ले रही है उसे अपने आगोश में
और वह लडकी सिमट रही है
अपने आप में
मानो एक नई नवेली दुल्‍हन
शर्माकर, घबराकर सिकुड जाती है अपने आप में
जब होता है उसका मिलन
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी

बचने के लिए सर्दी से
ले रही है अपने आप को
शाल के आगोश में
कभी सिर तो कभी पैर
रह जाते हैं बाहर उसके
फिर भी कर रही है
कोशिश बार बार
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी

चाय वाले की आवाज सुन
हुई उठ खडी वो लडकी
चाय ली एक घूंट पीया
और अनुभव किया गर्मी को
चेहरे पर मुस्‍कुराहट दौड आई
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी

अब
फिर से लिया अपने आप को
उस शाल के आगोश में
महसूस किया गर्मी को
और फिर चली गई
गहरी नींद के आगोश में
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लड़की
-मोहन वशिष्‍ठ

29 comments:

Anonymous said...

क्या बात है, बड़ी रंगीन रचना कर डाली :)

वैसे हकीकत है या कल्पना ???
जो भी है बेजोड़ लिखा आपने …

ऐसे वाकये से काश हम भी रूबरू हो :)

Anonymous said...

bahut sundar

डॉ .अनुराग said...

कुछ याद दिला गई ये कविता ....

सुशील छौक्कर said...

आज पहली बार आना हुआ और मन जीत लिया।

MANVINDER BHIMBER said...

bahut achcha likha hai.....kamaal

Alpana Verma said...

कई दिनों बाद अपना लिखा आप ने प्रस्तुत किया.बहुत अच्छी कविता है.
कोई कोई घटना अक्सर दिमाग ऐसे ही रह जाती है.

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर कविता कही आप ने,
धन्यवाद.
अब ट्रेन मै बेठी लड्कियो की ओर ताकना बन्द कर दो,वरना... वेलन से बचना कठिन होगा मियां

रंजू भाटिया said...

acchi hai lagta hai kisi sundar yaad se judi hai aapki yah kavita

Vinay said...

बहुत अच्छे मोहन जी!

राजीव जैन said...

बहुत बढिया

ताऊ रामपुरिया said...

जरा भाटिया जी की बात पर ध्यान दिया जाये.:)

रामराम.

मोहन वशिष्‍ठ said...

आप सभी ने मेरी इस कविता को सराहा इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। दरअसल मैं अभी दो तीन दिन पहले ही दिल्‍ली जा रहा था तो सामने वाली बर्थ पर एक लडकी थी बस उसको देखकर उसके हावभाव को देखकर लगा कि शायद इस तरह से कुछ लिखा जाए बस तभी पैन और कागज उठाया और लिख दिया बाकी याद वगैरा कोई नहीं जुडी हुई। भाटिया जी बेलन का डर तो तब होगा ना जब घर बताऊंगा मैं घर बताऊंगा ही नहीं हां अगर कभी घर पर देख लिया तो आपका नाम ले लूंगा कि आपने लिखकर भेजी है अब कहो बेलन से बचने की बारी किसकी हा हा हा

vijaymaudgill said...

कविता तो बहुत ख़ूब दोस्त।
मगर भाटिया जी तो तब फंसेंगे ना जब मैं उन्हें फंसने दूंगा। मैं जो बैठा हूं घर जाकर ख़ुद भाभी जी को बताऊंगा और बच्चों को भी कि देखो क्या करते हैं तुम्हारे पिता। दो बच्चों के होते हुए भी ट्रेन में लड़की को देखता है और भाभी को छोड़कर उस पर कविता लिखता है। अब बताओ बेलन किसके लिए।

Mishra Pankaj said...

kya khoob kavita guru

Dr. Amar Jyoti said...

सुन्दर।

योगेन्द्र मौदगिल said...

मेरा अंदाज़ा बिल्कुल ठीक निकला.................par ये ट्रेन में लड़कियां जाती ही क्यूं हैं ?

कडुवासच said...

... बहुत खूब!

Udan Tashtari said...

ये हुई न मोहन भाई की नजर की तराश!! वाह!! बहुत बखूबी शब्द दिये हैं. मन प्रसन्न हो गया. बधाई.

seema gupta said...

' hme to is khabr ka intjar hai ki belan kiske ghr mey chla ok kisne chalvaya ha ha ha ' regards

ilesh said...

just toooooo good.....

shelley said...

wah bhai wah. aisa to main v karti hu.

hem pandey said...

सुंदर शब्द चित्र है .

Dev said...

Very real and nice poem...
Regards

Atul Sharma said...

कविता में भी मजा आया और इस बेलन प्रकरण में भी।

Satish Chandra Satyarthi said...

बहुत भावपूर्ण कविता.
आप ट्रेन यात्राएं नियमित रूप से किया करें
कम से कम हम पाठकों को अच्छी कविताएँ तो पढने को मिलेंगी

vandana gupta said...

kya khoob likha hai aapne..........tarif ke liye lafz kam hi pad jate hain.

Anil Solanki said...

Wah Mohan G,
Kamaal ki kavita hai.

Ujjawal Ranjan said...

Mann mein uthe baav ko apne achhi disha di hai...congrats mohan jee!

vijaymaudgill said...

mohan kya hua dost ab likhte kyu nahi ho yaar. muddatt ho gayi yaar tumhara likha kush parhe huye. kush to post kar yaar. iktha shuru huye the yaar kush post kar jaldi.