Sunday 5 July 2009

फुरसत के लम्‍हे


नमस्‍कार साथियों
माफ करना आजकल थोडी दिक्‍कतें आ रही हैं इसलिए ज्‍यादा समय नहीं बिता पा रहा हूं आप सभी के साथ। आज आप को थोडा मुस्‍कुराता देखने को दिल कर रहा है इसलिए आप सभी के साथ एक हास्‍य कविता सांझा कर रहा हूं जिसे लिखा है हमारे विजय जैन जी ने तो पेश है आपकी खिदमत में फुरसत के लम्‍हे



हम फुरसत में कुछ लम्‍हे इस तरह गुजारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली, छिलके उन पर मारा करते हैं

एक दिन हमको वो खिडकी पर नजर आ रही थीं
वो हमको देखकर धीरे से मुस्‍कुरा रही थीं
हम भी उन्‍हें देखकर मुस्‍कुराने लगे
हाथ में जो मूंगफली थी, उसे चबाने लगे
उस समय आ रहा था हमें बहुत नजारा
तभी हमने उन पर मूंगफली का छिलका मारा

अचानक सामने से उसका बाप आ टपका
छिलके को उसने रास्‍ते में ही लपका
छिलका फैंककर बंदूक उसने उठा ली थी
मुझे मारने की कसम जैसे खा ली थी
मुझे भी डर लग रहा था घर से बाहर आने में
इसलिए छिप गया मैं पडोसन के गुसलखाने में
पडोसन के कपडों को भी हम बडे प्‍यार से निहारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...

उसका बाप पहुंच चुका था अब रास्‍ते में
मैंने सोचा कि जान जाएगी मेरी सस्‍ते में
मेरी जान अटक पडी थी एक खूंटी पर
तभी मेरा हाथ चला गया वहां टूटी पर
उधर, उसका बाप गुस्‍से में लाल पीला हो रहा था
इधर, मैं टूटी के नीच खडा गीला हो रहा था

फिर सोचा कि टूटी को अब बंद किया जाए
उस जल्‍लाद से बचने का कुछ प्रबंध किया जाए
तेरी याद में गजलें लिख लिखकर रैपर पर उतारा करतें हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...

मैंने सोचा कि अब तू बहुत डर चुका
ऐसे नहीं मिल पाएगी तुझे तेरी माशूका
मैं यह सोचकर उसके बाप के सामने आ गया
उसका बाप मुझे देखकर पहले घबरा गया
फिर उसने बंदूक मेरी बाहों में अडा दी
मैंने फुकरा बनकर छाती आगे बढा दी
मेरा फुकरापन उस समय किधर गया
जब उसने गोली चलाई और मैं मर गया
जन्‍नत में भी हम बैठकर तुझको ही पुकारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...

15 comments:

अनिल कान्त said...

वाह मजा आ गया ...मजेदार

डॉ. मनोज मिश्र said...

furst me bhee achchaa likh diya ,bdhai.

P.N. Subramanian said...

मनोरंजक. आभार. .

राज भाटिय़ा said...

वाह वाह क्या बात है, भाजी मजा आ गया.

धन्यवाद

Urmi said...

वाह वाह क्या बात है! बहुत ही मज़ेदार लगा! शुरुयात जितना बढ़िया है उतना ही सुंदर कार्टून है और कहानी तो मस्त है! इस बार का पोस्ट आपका सबसे अलग सबसे जुदा लगा! लिखते रहिये मोहन जी! मुझे आपका हर एक पोस्ट बहुत पसंद है!

karuna said...

मोहन जी ,बहुत सुन्दर व हास्य पूर्ण रचना है पर सच बताइए ,यह मात्र एक रचना है या आपके जीवन का सच ,मुस्कराइए नहीं --फुर्सत के लम्हें हैं |

Murari Pareek said...

उसका बाप उधर लाल पिला हो रहा था !! और मैं इधर नल के पानी से गिला हो रहा था!! हा.. हा.. हा.. गज़ब बहुत हास्य वर्धक है जी ! गिला गिला दिल गिला गिला !! मजा आ अगया !!

admin said...

बहुत बढिया। मजा आ गया जी।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Alpana Verma said...

विजय जैन जी की लिखी कविता मजेदार है..लगता है फुर्सत में मूंगफली खाते ही लिखी गयी है!
धन्यवाद.
मोहन जी ,मेरी ब्लॉग सूची में आप की पोस्ट की फीड नहीं आती है.पुरानी एक महीने की फीड दिखा रही है..
कृपया मुझे ईमेल से अपनी नयी पोस्ट के बारे में बता दिया करें.

sandeep sharma said...

bahut khoob..

डिम्पल मल्होत्रा said...

interesting poem...

vijay kumar sappatti said...

mohan ji , hame to aapki likhi kavitao ka intjaar hai ji


regards

vijay
please read my new poem " झील" on www.poemsofvijay.blogspot.com

ARUNA said...

Waah Mohan ji, aapke blog pe hum der se aaye lekin mazaa aa gaya yahan aake!!!!

vandana gupta said...

waah........anand aa gaya.

चाहत said...

बहुत बड़ियां है
मज़ा आ गया
धन्यवाद