Wednesday, 9 December 2009
खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी
खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी खुशखबरी
Thursday, 5 November 2009
पेट की खातिर या ठंड की खातिर
सुबह सुबह की मीठी मीठी
कुनकुनी सी ठंड
तन पर नाम मात्र कपडे
कंपकपाता जिस्म
सिकुड रहा है
अपने आप में
हाथ पेट की खातिर
आ रहा है चिथडों से बाहर
कोई राही
दे दे उसे रहम
राही उतरा एक
काम किया नेक
उतार कंबल अपना
ओढाया उसे
अब हाथ अंदर चला गया कंबल के
पेट की खातिर नहीं
ठंड से बचने की खातिर
Tuesday, 20 October 2009
मतलब की दुनिया
ये चेहरों पे चेहरे लगाती है दुनिया
ये भोले ये मासूम सुंदर से चेहरे
मगर दिल में इनके हैं काले अंधेरे
मतलब के रिश्ते बनाती है दुनिया
फिर तन्हा एक दिन छोड जाती है दुनिया
कभी दोस्त बनके हंसाती है दुनिया
कभी बनके दुश्मन रुलाती है दुनिया
कभी प्यार से लगाकर गले
पीछे से खंजर चुभोती है दुनिया
कभी खूबसूरत चेहरे पे न जाना
दिल देखकर फिर दिल को लगाना
इंसान को यही सिखाती है दुनिया
है दौलत यहां हर रिश्ते से ऊपर
दौलत के लिए अपनों का खून
बहाती है दुनिया
ऊफ ये दुनिया ये मतलब की दुनिया
-रजनी वशिष्ठ
(नोट - यह कविता मेरी पत्नी द्वारा लिखित है । )
Thursday, 15 October 2009
दीपावली की शुभकामनाएं
दीपावली पर्व की आप सभी को समस्त परिवार सहित हार्दिक शुभकामनाएं वैभव लक्ष्मी आप सभी पर कृपा बरसाएं। लक्ष्मी माता अपना आर्शिवाद बरसाएं।
दूर कहीं गगन के तले
एक दीप की लौ नजर आई
जाकर पास देखा उसके
दीपक जल रहा था
बिना तेल के
मैंने पूछा दीपक से
तेल नहीं तो कैसे जल रहे हो तुम
तो दीपक ने जवाब दिया
कि
जिस तरह तुम इंसान
बिना तेल और बाती के
एक दूसरे से जल रहे हो
वैसे ही मैं भी
तुम इंसानों को देख कर
जल रहा हूं
Sunday, 27 September 2009
जिंदगी कुछ वक्त दे मुझे
जिससे हूं मैं दूर
बहुत दूर
गाहे बगाहे घर जाना
और
जल्दी से घर से लौट वापस आना
क्या यही है जिंदगी
क्या यही है जिंदगी का दस्तूर
घर पर है मेरी बीमार मां
बीमार पिता
और मैं
अकेला
दूर घर से बहुत दूर
ना मां के दर्द को बांट पा रहा हूं
ना पिता की सेवा कर रहा हूं
आखिर क्यों
ऐसा जीवन जीने को मजबूर हूं
आखिर क्यों
क्या इसी को कहते हैं जीवन
क्या फायदा मेरे इस जीवन का
जो मैं अपनों के ही दुख दर्द में
उनका सहारा ना बनूं
क्यों नहीं कर पा रहा मैं उनकी सेवा
उनके बुढापे में
क्यों नहीं बन पा रहा मैं
उनके के बुढापे की लाठी
क्यों आखिर क्यों
क्यूं वक्त ले रहा इम्तिहान है
यूं ही ना गुजर जाए जिंदगी तमाम है
इम्तिहान से डरता नहीं हूं मैं
तूफानों से रूकता नहीं हूं मैं
सिर्फ मां के निस्वार्थ प्रेम को
भूलता नहीं हूं मैं
फिर कैसे उन्मुख हो जाऊं
कैसे कर्तव्य विमुख हो जाऊं
जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं
Monday, 21 September 2009
भारत धरती मां है हमारी
हम सब इसकी संतान
इससे है पहचान हमारी
हम इसकी पहचान
भारत धरती मां है हमारी
हम हैं भारत के बच्चे
ये हमको है अभिमान
दुश्मन इस पर नजर जो डाले
ले लें उसकी जान
भारत धरती मां है हमारी
अगर पडी जो इसे जरूरत
कभी हमारी जान की
इक पल की ना देर लगाएं
हंसकर दें बलिदान
भारत धरती मां है हमारी
(बिटिया के स्कूल में गीत फेस्टीवल था। तो कुछ सूझा नहीं हमारी पत्नी जी ने इन चार लाईनों को लिखा और बिटिया को सिखा दिया। हमारी बिटिया ने उसे अपनी तोतली सी आवाज में अपनी टीचर को सुनाया और काफी खुश हुईं। )
Tuesday, 8 September 2009
बन जा मेरी मात यशोदा
तू बन जा मेरी मात यशोदा
मैं कान्हा बन जाऊं
जा यमुना के तीरे मां
बंशी मधुर बजाऊं
इक छोटा सा बाग लगा दे
जहां झूमूं नाचू गाऊं
घर-घर जाकर माखन मिश्री
चुरा चुरा के खाऊं
इक छोटी सी राधा लादे
जिसके संग रास रचाऊं
तू ढूंढे मुझे वन उपवन
मैं पत्तों में छिप जाऊं
तू बन जा मेरी मात यशोदा
मैं कान्हा बन जाऊं
Sunday, 6 September 2009
साहिर लुधियानवी जी के शेर
आज की कडी में हम आपको पढा रहे हैं साहिर लुधियानवी के शेरों की एक सीरिज तो बस कुछ मत सुनो बस पढो और बताओ कि आज की पेशकश कैसी रही तो आज पेश हैं साहिर लुधियनवी जी के शेरमैं और तुम से तर्के-मोहब्बत की आरजू
दीवाना कर दिया है गमें रोजगार ने
अभी न छेड मोहब्बत के गीत ए मुतरिब
अभी हयात का माहौल साजगार नहीं
अश्कों में जो पाया वो गीतों में दिया है
इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है
नगमा जो रूह में है, नै में कुछ नहीं
गर तुझ में कुछ नहीं तो किसी शै में कुछ नहीं
हर एक दौर का मजहब नया खुदा लाया
करें तो हम भी, मगर किस खुदा की बात करें
देखा है जिंदगी को कुछ इतना करीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
माना कि इस जहां को गुलजार न कर सके
कुछ खार कम तो कर गए
गुजरे जिधर से हम
ले दे के अपने पास फख्त इक नजर तो है
क्यों देखें जिंदगी को किसी की नजर से हम
निकले थे कहां जाने के लिए
पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं
अब अपने भटकते कदमों को
मंजिल का निशां मालूम नहीं
बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दिये
इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है
उम्र भर रेंगते रहने की सजा है जीना
एक-दो दिन की अजीयत हो तो कोई सह ले
अभी जिंदा हूं लेकिन सोचता रहता हूं खल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने
मुफिलसी हिस्से लताफत को मिटा देती है
भूख आदाब के सांचों में नहीं ढल सकती
मुझ को कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूं
इश्क नाकाम सही, जिन्दगी नाकाम नहीं
सियह-नसीब कोई हम से बढ के क्या होगा
जो अपना घर भी जला दे तो रौशनी न मिले
तुम मेरे लिए अब कोई इल्जाम न ढूंढो
चाहा था तुम्हें, इक यही इल्जाम बहुत है
प्रस्तुत कर्ता मोहन वशिष्ठ, साहिर लुधियानवी जी की एक किताब से साभार
Tuesday, 1 September 2009
हो रही है बारिश झम -झमाझम
नाच रहे हैं पेड छम -छमाछम
बह रही है पवन सन -सनासन
हो रही है बारिश झम -झमाझम
नहीं निकला सूरज तम- तमाकर
छिप गया बादलों में दुम दबाकर
भर गया पानी लब- लबालब
हो रही है बारिश झम- झमाझम
गा रहे हैं पक्षी चह -चहाकर
मेंढक भी टर्राया टर- टराटर
पत्ते भी खिले चम -चमाकर
हो रही है बारिश झम- झमाझम
धरती भी हुई गीली तर- तरातर
बच्चों ने की मस्ती छम -छमाछम
आया सावन हर- हराहर
हो रही है बारिश झम- झमाझम
Sunday, 30 August 2009
अधखिला फूल
सबके चेहरे खिले
फूल खिले
पेड खिले
खिला नवयौवन भी
बस, नहीं खिला तो
एक फूल
जो अभी अधखिला था
गिर गया
इस बारिश से
और फिर वो अधखिला फूल
समा गया
पानी के आगोश में
और बह गया दूर
बहुत दूर
पानी के आगोश में
Thursday, 13 August 2009
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाईयां
जय श्री कृष्णा
जय जय श्री राधे
आप सभी को श्री कृष्ण जी के जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं
अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं
वंदे मातरम्
Tuesday, 11 August 2009
अंधा प्यार या अंधा इंसान
एक अंधा लडका सभी लोगों से बहुत घृणा करता था। वह किसी से बात करना भी मुनासिब नहीं समझता था। लेकिन वह लडका एक लडकी से बेइंत्हा प्यार करता था और उसके बिना रह भी नहीं सकता था। दोनों में बहुत सारी प्यार भरी बातें होती थीं। लडकी भी बेइंत्हां प्यार करती थी उस लडके को। एक दिन वह लडका लडकी से बातें कर रहा था, और बोला कि दोस्त मैं देख नहीं सकता, अगर मैं देखता तो बिल्कुल तुमही से शादी करता। एक दिन एक भद्र पुरुष ने अपनी आंखें उसी अंधे लडके को दान कर दी। फिर वह नई आंखों से दुनिया को देखने लगा। जब वह उस लडकी से मिला जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार करता था तो देखा कि वह लडकी भी अंधी है। अब उस लडकी ने पूछा, कि अब तुम दुनिया को देखने लगे हो, क्या अब तुम मुझसे शादी करोगे। अब लडके के अंदर दुनिया में फिर से देख पाने का घमंड आ गया था, तो उसने स्वार्थपूर्ण तरीके से कहा, नहीं। मैं, तुमसे शादी नहीं कर सकता। लडकी ने बहुत ही प्यार के साथ उसे जबाव दिया कोई बात नहीं। मेरी बात का बुरा मत मानना। लेकिन मेरी तुमसे एक विनती है, एक अरदास है, लडका बोला, क्या । लडकी बोली, मेरी आंखों को हिफाजत से रखना। (अत: कोई भी निर्णय लेने से पहले अपने अतीत में झांककर देखो, मत भूलो मत भूलो )
Saturday, 8 August 2009
बादलों जैसा जोश
कभी तो सूरज को ले लेते हैं अपने आगोश में
गर हो जाए पानी जैसा तेज हर इन्सां
कभी तो पहाडों से रास्ता बना ही ले
Sunday, 5 July 2009
फुरसत के लम्हे
नमस्कार साथियों माफ करना आजकल थोडी दिक्कतें आ रही हैं इसलिए ज्यादा समय नहीं बिता पा रहा हूं आप सभी के साथ। आज आप को थोडा मुस्कुराता देखने को दिल कर रहा है इसलिए आप सभी के साथ एक हास्य कविता सांझा कर रहा हूं जिसे लिखा है हमारे विजय जैन जी ने तो पेश है आपकी खिदमत में फुरसत के लम्हे
हम फुरसत में कुछ लम्हे इस तरह गुजारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली, छिलके उन पर मारा करते हैं
एक दिन हमको वो खिडकी पर नजर आ रही थीं
वो हमको देखकर धीरे से मुस्कुरा रही थीं
हम भी उन्हें देखकर मुस्कुराने लगे
हाथ में जो मूंगफली थी, उसे चबाने लगे
उस समय आ रहा था हमें बहुत नजारा
तभी हमने उन पर मूंगफली का छिलका मारा
अचानक सामने से उसका बाप आ टपका
छिलके को उसने रास्ते में ही लपका
छिलका फैंककर बंदूक उसने उठा ली थी
मुझे मारने की कसम जैसे खा ली थी
मुझे भी डर लग रहा था घर से बाहर आने में
इसलिए छिप गया मैं पडोसन के गुसलखाने में
पडोसन के कपडों को भी हम बडे प्यार से निहारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...
उसका बाप पहुंच चुका था अब रास्ते में
मैंने सोचा कि जान जाएगी मेरी सस्ते में
मेरी जान अटक पडी थी एक खूंटी पर
तभी मेरा हाथ चला गया वहां टूटी पर
उधर, उसका बाप गुस्से में लाल पीला हो रहा था
इधर, मैं टूटी के नीच खडा गीला हो रहा था
फिर सोचा कि टूटी को अब बंद किया जाए
उस जल्लाद से बचने का कुछ प्रबंध किया जाए
तेरी याद में गजलें लिख लिखकर रैपर पर उतारा करतें हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...
मैंने सोचा कि अब तू बहुत डर चुका
ऐसे नहीं मिल पाएगी तुझे तेरी माशूका
मैं यह सोचकर उसके बाप के सामने आ गया
उसका बाप मुझे देखकर पहले घबरा गया
फिर उसने बंदूक मेरी बाहों में अडा दी
मैंने फुकरा बनकर छाती आगे बढा दी
मेरा फुकरापन उस समय किधर गया
जब उसने गोली चलाई और मैं मर गया
जन्नत में भी हम बैठकर तुझको ही पुकारा करते हैं
होटों से चबाकर मूंगफली...
Monday, 29 June 2009
कविता खो गई
मेरी अपनी
जिसे लिखा था मैंने
बहुत ही निराले अंदाज में
खो गई कहीं
कहां ढूंढूं
कहां खोजूं
किस किताब में दबी होगी
किताब में होगी भी, या नहीं
कहीं
मेरे भीतर ही तो नहीं खो गई
पता नहीं
क्या सच में मुझसे खो गई
या आंख मिचौली खेल रही है
पता नहीं
क्यों नहीं मिल रही मुझे
मेरी कविता
Tuesday, 2 June 2009
बेटियां
बेटियां कितनी जल्दी बडी हो जाती हैं
इस बात का पता शायद ही
किसी मां बाप को ना चले
दिन निकल जाते हैं यों ही
अभी कुछ दिन पहले ही तो
उसने चलना शुरू किया था
आज दौडने भी लग गई
अभी कुछ दिन पहले तक तो
ठीक से बोल भी नहीं पाती थी
लेकिन आज गाना गाने लगी
आज जन्मदिन है उसका चौथा
पांचवा भी करीब है
और यूं ही देखते देखते
हो जाएगी बडी
और फिर
उड जाएगी छोडकर पिता का घर
Monday, 11 May 2009
प्यार हो तो ऐसा
एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे |
लड़के की मौत के बाद,
उसने लड़की को याद करते हुए कहा..
"एक वादा था तेरा, हर वादे के पीछे..
तुम मिलोगी मुझे हर दरवाजे के पीछे..!
पर तुम मुझसे दगा कर गई..
एक तुम ही न थी मेरे जनाजे के पीछे..!"
पीछेसे एक आवाज आई..
तब लडकेने मुडके देखा, तो वही लड़की खड़ी थी |
लड़कीने कहा..
"एक वादा था मेरा, हर वादे के पीछे..!
मैं मिलूंगी तुम्हे हर दरवाजे के पीछे..!
पर तुमने मुडकर नहीं देखा..
एक और जनाजा निकला था, तेरे जनाजे के पीछे..!"
प्रिय साथियों कुछ दिन पहले मुझे मेरे एक दोस्त ने दिल्ली से एक मेल भेजी जिस में ये कुछ लाईनों की रचना थी पढा तो दिल को छू गई। आज दोबारा से पढा तो सोचा क्यों ना अपने बलाग की शोभा बनाई जाए। यहां पर मैं यह भी बता दूं कि यह रचना मैंने नहीं लिखी है। लेकिन इसके लेखक का नाम भी मुझे नहीं पता है हां यह पता है कि इसे भेजने वाला दोस्त दिल्ली में हैं। तो इस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। अगर किसी को कोई ऐतराज हो तो मुझे बता सकता है। उसके बाद मैं इसे डिलीट कर दूंगा या महान ब्लागर्स जो भी राय देंगे वह मैं मानूंगा लेकिन मेरा किसी की भी पोस्ट को चोरी करने का कोई इरादा नहीं है इसलिए पढें और बताएं कि क्या ये गलत तो नहीं है
Wednesday, 6 May 2009
बेटियां
आजकल क्या हुआ इस दुनिया को
कहां गई वो सुशील सुनैयना
और
वो घर की लक्ष्मी कहलाने वाली
आखिर क्या कसूर है इनका
जो इनको इस जहां में आने से
पहले ही भेज दिया जाता है
दूसरे जहां की ओर
जो आज मां है
कल वो भी किसी की बेटी थी
आज जो पत्नि है
वह भी किसी की बेटी थी
आने दो इस बेटी को
मत छीनो इससे जिंदगी इसकी
एक दिन यही बेटी
पूरी दुनिया की बेटी बनेगी
अपनी मेहनत से
अपनी लगन से
तुम्हारा और देश का
नाम रोशन करेगी
आने दो, आने दो
इस बेटी को आने दो
Friday, 24 April 2009
न कोई फूल दामन में मेरे
खडा कर दिया आज मुझे
उस मोड पर
जहां से
पीछे हटने का नहीं है हौसला मुझमें
आगे बढने की ताकत नहीं मुझमें
ये एक मोड जिंदगी का मेरे
है खतरनाक
चंद कांटे ही कांटे हैं
न कोई फूल दामन में मेरे
पराए तो पराए ही थे
अब न रहे अपने भी मेरे
चलते थे साथ जो हमेशा
नहीं चलने देते
अब साथ भी अपने
Sunday, 19 April 2009
हे प्रिये जब तुम साथ मेरे होते हो
कितने ही अफसाने कहते हो
होता है मीठा सा अहसास
उन तानों में भी जो तुम देते हो
विरह वेदना से हो पीडित
याद मुझे तुम करते हो
जब भी ताने तुम देते थे
अब भी ताने तुम देते हो
हे प्रिये जब तुम साथ मेरे होते हो
क्या तुम्हें नहीं पता दूरी बढाती है प्यार
विरहनी बनी थी मीरा
राधा ने भी रस चखा
चखकर तुम भी रस विरह का
ताने हजार देते हो
हे प्रिये जब तुम साथ मेरे होते हो
इस विरह में तुम्हारे
दिन तो गुजर जाता है
आते आते शाम और फिर रात के
ये दिल पगला सा जाता है
और कोसता हूं इस विरह को मैं भी
जिसमें ताने तुम देते हो
हे प्रिये जब तुम साथ मेरे होते हो
Tuesday, 14 April 2009
मैं कवि बनता नहीं
नीली स्याही वाले पैन से
चंद आडी तिरक्षि लकीरें
खींचने से
कोई कविता नहीं बनती
न ही कोई
कवि बन जाता ऐसे ही
कवि बनने के लिए
अपना दिल बाहर निकाल
खून से उस पर लिखना
आंसुओं से उसको सींचना
और फिर
मन के किसी कोने से
दिमाग के किसी हिस्से से
डालना होता है
थोडा आत्मविश्वास उस पर
रचने पडते हैं संवाद
यूं ही कोई भावनाओं में बहकर
कवि नहीं बन जाता
कब से समझा रहा हूं अपने आप को
मगर दिल सुनता नहीं
मन किसी की मानता नहीं
दिमाग काम करता नहीं
और मैं कवि बनता नहीं
Thursday, 9 April 2009
घर तो घर था
घर हुआ करता था
भाई बहन मां बाप
सब के रहने से
घर बना हुआ था
घर धीरे धीरे बनता गया मकान
मकान में कुछ लोगों के रहने से
मकान मकान ही रहा
न बन सका घर
बीत गए बरसों
Wednesday, 8 April 2009
माएं नी माएं मैं इक शिकरा यार बनाया
सुनिए और फिर बताइये कैसा लगा आपको यह गीत
Sunday, 5 April 2009
मेरे अपने बारे में
कि मैं क्या हूं
अंदर झांकता हूं
तो पाता हूं
कुछ भी नहीं मैं
कभी सोचता हूं कि
किसी कवि की लिखी
किसी कविता के
शब्द में लगी मात्रा की आवाज का
सौंवा भाग भी नहीं हूं
कभी सोचता हूं कि
धरा पर लगे वृक्षों के पत्ते पर पडी
ओस की बूंद का
सौवां भाग भी नहीं हूं
कभी सोचता हूं कि
रिमझिम गिरती बारिश की एक बूंद
जो बादलों से गिरकर बिखर गई
उसके छोटे से भाग के समान भी नहीं हूं
तब मैं सोचता हूं कि
लोग क्यों कहते हैं कि
तुम ये हो तुम वो हो
क्या लोग सही हैं
यदि हैं तो मुझे क्यों नहीं दिखता
क्यों नहीं महसूस होता
क्यों नहीं सोच पाता कि
हां मैं हूं
मैं हूं बहुत कुछ
Wednesday, 1 April 2009
बिसरी यादें मूर्ख दिवस की
पहले तो काफी देर तक वह रोती रही फिर मेरे से घर ना जाने की जिद करने लगी बोली कि अब मैं शाम होने से पहले घर नहीं जाऊंगी। अभी कुछ खाया भी नहीं था बेचारी मूर्ख बनायी सो लभाब में। अब मूर्ख बनाया हे तो मूर्ख को निभाना भी हमें ही है। फिर उनके लिए खाने पीने का इंतजाम किया और वहीं दोपहर में पुराने घर में सो गए। हुई शाम तो उन्हें लेकर घर गए। घर पर हंसी खुशी का माहौल देखते ही बनता था। उस दिन वो अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकली किसी के सामने। सच में बहुत ही अच्छा खुशी भरा दिन था वो यादगार दिन। लेकिन अब शायद पता नहीं कब ऐसा दिन आएगा।
Saturday, 28 March 2009
मैं बेरोजगार हूं मुझे नौकरी दे दो
डूबते हुए आदमी ने
पुल पर चलते हुए आदमी को
आवाज लगाई बचाओ बचाओ
पुल पर चलते आदमी ने नीचे
रस्सी फेंकी और कहा आओ
नदी में डूबता हुआ आदमी
रस्सी नहीं पकड पा रहा था
रह रह कर चिल्ला रहा था
मैं मरना नहीं चाहता
जिंदगी बहुत महंगी है
कल ही मेरी एमएनसी में नौकरी लगी है
इतना सुनते ही पुल पर चलते
उस आदमी ने अपनी रस्सी खींच ली
और भागता भागता एमएनसी गया
उसने वहां के एचआर को बताया कि
अभी अभी एक आदमी डूबकर मर गया है
और इस तरह आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
मैं बेरोजगार हूं मुझे नौकरी दे दो
एचआर बोला दोस्त
तुमने आने में थोडी देर कर दी
अब से कुछ देर पहले ही
इस नौकरी पर उस आदमी को लगाया है
जो उस आदमी को धक्का देकर
पहले यहां आया है
कुछ दिन पहले मेरे एक दोस्त की मेल आई मेल पढी तो लगा कि हां यह अपने ब्लाग पर सांझा किया जा सकता है और पेश कर दी आपकी खिदमत में
Wednesday, 25 March 2009
मंजिल की विसात ही क्या
रास्ता भी मैं भटक गया
सोचा था साथ दे देंगे मेरे कदम
चलेंगे मेरे साथ दूर तलक
मिल जाएगी मंजिल
होगी आसान डगर
कदम ही मेरा साथ छोड गए
तो मंजिल की विसात ही क्या
अब अपनों ने मुंह फेर लिया
दुनिया का भरोसा क्या करना
जब दोस्त ही दुश्मन बन गए
तो गैरों की बात ही क्या करना
किससे कहना किसको सुनना
है तकदीर का ये फसाना
कदम ही मेरा साथ छोड गए
तो मंजिल की विसात ही क्या
की थी कोशिश पकड उंगली चलने की
चला था कुछ दूर साथ उनके
छोड बीच राह में अकेले
चले गए मेरी उंगली थामने वाले
जब उंगली ने ही साथ छोड दिया
तो थामने वालों की बात ही क्या
कदम ही मेरा साथ छोड गए
तो मंजिल की विसात ही क्या
Saturday, 21 March 2009
बताओ तो जानें
माफ करना अभी आप सबको झिलाने का मूड नहीं बन पा रहा है। इसलिए अभी शांत ही बैठा हूं कुछ भी नहीं लिख रहा हूं बस पढने में व्यस्त हूं। आज अचानक ही बैठा था तो सोचा कि सबको यह भी बता देना बहुत जरूरी है कि मैं ब्लाग जगत में जीवित हूं। और नारद मुनि की तरह भ्रमण करता रहता हूं।
आज मुझे आप सभी की बहुत जरूरत आन पडी है। और मुझे यह भी पूरा यकीन है कि आप मेरी हरसंभव मदद करने को सदैव तत्पर होंगे। और आखिर होंगे भी क्यों ना सबको कुछ ना कुछ लिखकर हमेशा झिलाता रहता हूं। अब शायद कुछ लोग झिलाना शब्द को नहीं समझ सकें होंगे तो मैं खुद ही बता दूं कि झिलाना मतलब परेशान करना, सिर दर्द करना जैसे कहते हैं कि एक शेर अर्ज किया है अब इसे झेलो तो वही झिलाना हूं मैं
तो अब काम की बात की जाए
तो काम की बात यह है कि मुझे एक भजन जोकि श्रीकृष्ण के ऊपर बनाया गया है और में इसकी मूल सीडी उपलब्ध हो सकती है । यह भजन मैंने सन 2005 में सुना था। अगर किसी के पास सीडी हो या ये भजन हो तो कृप्या मुझे मेरे मेल आईडी जोकि मेरी प्रोफाइल में है पर बता दें साथ ही अपना नंबर भी दे दें ।
इस भजन में
कृष्ण मात यशोदा से अपने ब्याह की अर्ज करते हुए अपने लिए बटुआ सी बहू लाने की बात कहते हैं
अब आप सभी से यह मेरी अरदास है कि इस सीडी के बारे में कृप्या मुझे जरूर बताएं या फिर ये वाला भजन मुझे मेल कर दें आप सबकी मदद की दरकार है मुझे इस समय।
इसी बहाने आपसे सिर्फ एक छोटा सा सवाल पूछ रहा हूं शायद कईयों को पता भी होगा लेकिन बताना जरूर
एक बार एक मुर्गी अपने तीन चूजों के साथ सडक पार कर रही थी। सडक पार करते समय कार सामने आ गई और मुर्गी एक चूजे के साथ तो पार हो गई। बाकी चूजे पीछे ही रह गए। बाद में दोनों चूजे भी सडक पार आ गए। मुर्गी अपनी गिनती करने लगी और बोली ठीक है हम चारों बिल्कुल सुरक्षित है तो तुरंत ही सबसे छोटा चूजा भी बोल पडा वाह हम पांचों बिल्कुल ठीक हैं और सडक पार कर चुके हैं अब आप बताओ कि ये पांचवा चूजा कहां से आया। बताओ बताओ लेकिन याद रखें चीटिंग नहीं चलेगी
Tuesday, 10 March 2009
पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
Friday, 6 March 2009
जिंदगी में भरो रंग
पहले जब होली आती थी
खूब मस्तियां होती थी
जमीन भी गीली
आसमान भी गीला
होता सारा जहां रंगीला
दिन चार पहले होली के
सजते थे बाजार रंगों के
बच्चे पिचकारी चुनते थे
फिर भर रंग गुब्बारे फैंकते थे
रूकने पर राहगीर के
घर में छिपते फिरते थे
आता जैसे दिन फाग का
होता आसमान रंगों का
ढोल नगाडे बजते थे
हुर्रारे नाचते फिरते थे
घर-घर जाकर
पुआ-पकौडे खाते थे
कहीं पर मिलती बूंटी भोले की
मस्त होकर पीते थे
अब होली कहां रही रंगों की
दुश्मन हो गए भाई-भाई
रह गई होली खून की
लगा दिया गर रंग किसी को
गाली सुनने को मिलती है
अब गले लगाने की जगह
बंदूक गले पड जाती है
होली मनाने की जगह
अब गोली चलाई जाती है
अब कहां गया वो दौर होली का
कहां खो गए रंग गुलाल
कहां से आ गई शराब बीच में
रंग में भंग डालने को
मत भूलो तुम हो भारतवंशी
दी थी होली श्रीकृष्ण ने
खेली थी वृंदावन में
कहो तुम उस देश के वासी हो
होली आई है होली मनाओ
रंग गुलाल सभी को लगाओ
सब को अपने गले लगाओ
शराब, जुआ और बंदूके
इन सबको दूर भगाओ
(पकौडे खिलाओ होली मनाओ........... टिंग टिंग टिडिंग)
सभी फोटो साभार गूगल
Wednesday, 4 March 2009
योगेन्द्र मौदगिल जी की किताब की समीक्षा
(फोटो पर क्लिक कर व्यू बडा कर सकते हैं)
मौदगिल साहब हरियाणा के हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार हैं। उनकी कविता की 6 मौलिक एवं 10 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने भारत भर में अनेक मंचीय काव्य यात्राएं की हैं। अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित किए जा चुके हैं, उनमें 2001 में गढ़गंगा शिखर सम्मान, 2002 में कलमवीर सम्मान, 2004 में करील सम्मान, 2006 में युगीन सम्मान, 2007 में उदयभानु हंस कविता सम्मान और 2007 में ही पानीपत रत्न के सम्मान से नवाजा जा चुका है। सब टीवी, जीटीवी, ईटीवी, एमएचवन, चैनल वन, इरा चैनल, इटीसी, जैनटीवी, साधना, नैशनल चैनल आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कवितापाठ करते आ रहे हैं। हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का पिछले 6 वर्षों से निरन्तर प्रकाशान व संपादन करते आ रहे हैं। दैनिक भास्कर में 2000 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। दैनिक जागरण में 2007 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ मजे मजे म्हं का लेखन। अब तक पानीपत, करनाल एवं आसपास के जिलों अपितु राज्यों में 50 से अधिक अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के सफल संयोजन में भी मौदगिल साहब की सहभागिता रही
Thursday, 26 February 2009
तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे
Friday, 13 February 2009
नया साल मनाएंगे
श्री हसन साहब ने एक ब्लाग भी शुरू किया है जिसका निर्माण अभी चल रहा है एक बार यहां पर क्लिक कर उनकी और भी रचनाएं आप यहां पर पढ सकते हैं और उनका कमेंट कर उत्साहवर्धन कर सकते हैं तो पेश है उनकी एक रचना आपकी खिदमत में
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
आइनों का शहर बसाएंगे
मुर्दा जिस्मों को अपने
आईने दिखाएंगे
फिर
पत्थर उठाएंगे मारेंगे नहीं
भाग जाएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
पौधा नीम का लगाएंगे
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और
कालिसा के पानी से
उसको नहलाएंगे
फिर
जलाकर गीली पत्तियां उसकी
धुआं खूब उडाएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
पतंगें उडाएंगे
दूर तक ले जाएंगे
सरहद पर आसमानों की
पेंच लडाएंगे
फिर
वो काटा, वो काटा
कहकर शोर
खूब मचाएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
पहिया रोटी का बनाएंगे
खूब दौडाएंगे
खूब दौडाएंगे
फिर
जाकर
आंगन में पडोसी के
छोड आएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
सूली एक बनाएंगे
खुद को उस पर सजाएंगे
रोऐंगे, पीटेंगे और चिल्लाएंगे
फिर
जाकर जिस्म में दूसरों के
छुप जाएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
नए साल में हम
नदियों की माला बनाएंगे
मंगलम बस्तियां बसाएंगे
सूरज से आंखें लडाएंगे और
फिर
चांद को खा जाएंगे
इस तरह हम
नया साल मनाएंगे
Wednesday, 4 February 2009
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
जो अभी मासूम है
अभी तो वह भोली है
जिन्दगी को समझना अभी बाकी है
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
रात की हल्की हल्की सर्दी
ले रही है उसे अपने आगोश में
और वह लडकी सिमट रही है
अपने आप में
मानो एक नई नवेली दुल्हन
शर्माकर, घबराकर सिकुड जाती है अपने आप में
जब होता है उसका मिलन
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
बचने के लिए सर्दी से
ले रही है अपने आप को
शाल के आगोश में
कभी सिर तो कभी पैर
रह जाते हैं बाहर उसके
फिर भी कर रही है
कोशिश बार बार
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
चाय वाले की आवाज सुन
हुई उठ खडी वो लडकी
चाय ली एक घूंट पीया
और अनुभव किया गर्मी को
चेहरे पर मुस्कुराहट दौड आई
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लडकी
अब
फिर से लिया अपने आप को
उस शाल के आगोश में
महसूस किया गर्मी को
और फिर चली गई
गहरी नींद के आगोश में
ट्रेन की बर्थ पर लेटी एक लड़की
-मोहन वशिष्ठ
Saturday, 31 January 2009
तिडकन
कवि को होती है औरत में
माशूक की तलाश
औरत को होती है आदमी में
कवि की तलाश
तराजू फिर भी बराबर तुलती है
पढाई,कमाई, ऊपर से अलबेली
सुंदर, सुशील
अपनी-अपनी तलाश ले घूमते
टकराते और घट जाती शादी
पलों में ही लेकिन उडने लगती खुशबू
खुरने लगते हैं रंग
सुबह से शाम, काम से काम में
घिसने लगती है वह
आने लगती है उसके कपडों से
कभी सब्जियों, कभी बच्चों के पोतडों
और कभी दवायों की बदबू
जिस कीचड में उतरती है वह हर रोज
कंवल की तरह खिल कर निकलता बाहर
कवि पति
डब्बे पैक करती भूल जाती है वह धीरे धीरे
उसे चूमकर विदा करना
सजती-संवरती, धोती-नहाती
पढाती, खिलाती भूल जाती है धीरे धीरे
शाम को संवर-संवर कर बैठना
खुरदरे हो जाते हैं हाथ
पकने लगते हैं नक्श कहीं
उभरने लगती है झुर्री कोई
थक हार कर सो जाती
बेहोश मारती खर्राटे
बस रह जाती हैं
पत्नी, मां
मरने लगती है माशूक धीरे-धीरे
कवि पति रखता अपनी संभाल
साफ-शफाफ उठता
साफ-शफाफ जाता
कविताएं लिखता, श्रोता ढूंढता
सपनों को तिडकना सुनता
निकल जाता बाहर
सरेराह, सरेबाजार
मिल जाती खुशबू ताजा
उदासियां गाता, शब्दों के महल उसारता
कविताएं लिखता, कविताएं उचारता
बाहर डू नाट डिस्टर्ब की प्लेट
कोमल हाथों से निवाला खाता
जी उठता है कवि आशिक
लिखता है कविताएं छपती किताबें
वह गोल-मोल शब्दों के समर्पण करता
हर माशूक पर लिखता किताब भर कविताएं
ठोस दीवारें उठाई रखती
कंधों पर छत
तोतले बोलों में देखता कल
परतता बार-बार
कवि पति खुशबुएं ढूंढता
भागता जंगल-जंगल
बारिश, आंधियां माशूक को सौंप
आ छुपता वह घर अंदर बार-बार
पत्नी उसकी धीरे-धीरे भूल जाती
उसका कवि होना
कवि पति धीरे धीरे भूल जाता
उसका माशूक होना
-डॉ. पाल कौर
Friday, 23 January 2009
क्यूं ना ऐसे वतन पे हो हमको गुमां
जाने कैसा कैसा इसमे इतिहास छुपा है
कभी जी भर रोया तो कभी खूब हंसा है
भला किया है जन जन का इसने
बुरा ख़ुद बहुत चुप सहा है इसने
इस गौरवमयी भारत को मेरा प्रणाम
देखो इसमें बसती हम सब की है जान
कितनी दफा दुश्मनों ने चाहा इसे मिटाना
छीन आजादी इसको मिटटी में मिलाना
लेकिन इस धरती ने जन्मे सपूत महान
मिटा दिया दुश्मनों को देके अपनी जान
देखो इसमें बसती हम सब की है जान
Tuesday, 13 January 2009
हंसी का ठहाका लगाओ जरा धीरे से
गैरों में कहां दम था
मेरी हड्डी वहाँ टूटी,
जहाँ हॉस्पिटल बन्द था.
हमें तो अपनों ने लूटा
गैरों में कहां दम था
मेरी कार वहां खराब हुई
जहाँ गैराज बन्द था।
मुझे जिस एम्बुलेन्स में डाला,
उसका पेट्रोल ख़त्म था.
मुझे रिक्शे में इसलिए बैठाया,
क्योंकि उसका किराया कम था.
मुझे डॉक्टरों ने उठाया,
नर्सों में कहाँ दम था.
मुझे जिस बेड पर लेटाया,
उसके नीचे बम था.
मुझे तो बम से उड़ाया,
गोली में कहाँ दम था.
और मुझे सड़क में दफनाया,
क्योंकि कब्रिस्तान में फंक्शन था
नैनो मे बसे है ज़रा याद रखना,
अगर काम पड़े तो याद करना,
मुझे तो आदत है आपको याद करने की,
अगर हिचकी आए तो माफ़ करना.......
ये दुनिया वाले भी बड़े अजीब होते है
कभी दूर तो कभी क़रीब होते है
दर्द ना बताओ तो हमे कायर कहते है
और दर्द बताओ तो हमे शायर कहते है .......
एक मुलाक़ात करो हमसे इनायत समझकर,
हर चीज़ का हिसाब देंगे क़यामत समझकर,
मेरी दोस्ती पे कभी शक ना करना,
हम दोस्ती भी करते है इबादत समझकर........
नमस्कार दोस्तों आज मुझे मेरे एक खास दोस्त शेखर का दिल्ली से मेल आया मेल खोला तो देखा कि उसमें यह हास्य व्यंग्य है तो सोचा कि अभी लिखना तो हो नहीं पा रहा हे क्यों ना अपनी उपस्थिति दर्ज ही करा देंवें सो यह एक हास्य व्यंग्य यहां पर आपके सामने प्रस्तुत कर दिया है और यदि किसी भाई ने पहले ही यह ब्लाग पर लगा रखा हो तो मुझे बता दें मैं तुरंत ही हटा लूंगा क्योंकि यह मेरी अपनी रचना नहीं है और हां इसे हटवाने के लिए मुझे तीन दिन के अंदर ही बता दें तीन दिन के बाद किसी की कोई बात मान्य नहीं होगी फिर इसका फैसला ब्लाग जगत के दिग्गजों को सौंप दिया जाएगा।
Sunday, 4 January 2009
कैसे निकले कैद से
आखिर
बादलों की कैद से
हुआ आजाद वो
आते ही बाहर
खिलखिला कर हंस पडा
और
अपनी आजादी का जश्न मनाता रहा
मगर उसका यह जश्न
नहीं चला ज्यादा देर
कुछ ही देर में बादलों ने
फिर से लिया घेर
घबरा कर
डरकर
भाग उठा फिर
हुई खत्म आजादी
खत्म हुआ जश्न
बादलों ने आजादी पर उसकी
पानी दिया फेर
खुश हुए बादल कुछ इस तरह
कि पानी दिया गेर
घबराता हुआ कांपता हुआ
जा पहुंचा वो
बादलों की कैद में
अब सोच रहा है
कैसे निकले वो
बादलों की कैद से
Friday, 2 January 2009
मेरे ब्लाग को बचा लो
आज मेरे सामने एक दुविधा आ गई है। इस दुविधा का निवारण आप हम और हम सभी को मिलकर दूर करना ही होगा तो जल्दी से मेरी प्रोबल्म को सोल्व करो
मैंने एक ब्लाग का टेमपलेट लेकर अपने ब्लाग पर कापी किया बाद में कुछ एरर आए
फिर से कोशिश की । अब मेरा ब्लाग पूर्णतया- नहीं खुल रहा मैं क्या करूं कोई सुझाव दो और मेरे ब्लाग को बचाने में मेरी मदद करो मेरा ब्लाग है मोहन का मन
http://mohankaman.blogspot.com/
प्लीज जल्दी रिप्लाई कर मेरी मदद करो
Thursday, 1 January 2009
नववर्ष की नव बेला
नूतन पथ नेह नूतन हो
मृदुल मृदुल मृदु विहगों का कल
नव वसंत में नित नूतन हो
नव प्रकाश की नवल ज्योति का
जीवन में संचार नवल हो
कृत श्री त्रिलोचन भट़ट जी