मेरा अपना घर
जिससे हूं मैं दूर
बहुत दूर
गाहे बगाहे घर जाना
और
जल्दी से घर से लौट वापस आना
क्या यही है जिंदगी
क्या यही है जिंदगी का दस्तूर
घर पर है मेरी बीमार मां
बीमार पिता
और मैं
अकेला
दूर घर से बहुत दूर
ना मां के दर्द को बांट पा रहा हूं
ना पिता की सेवा कर रहा हूं
आखिर क्यों
ऐसा जीवन जीने को मजबूर हूं
आखिर क्यों
क्या इसी को कहते हैं जीवन
क्या फायदा मेरे इस जीवन का
जो मैं अपनों के ही दुख दर्द में
उनका सहारा ना बनूं
क्यों नहीं कर पा रहा मैं उनकी सेवा
उनके बुढापे में
क्यों नहीं बन पा रहा मैं
उनके के बुढापे की लाठी
क्यों आखिर क्यों
क्यूं वक्त ले रहा इम्तिहान है
यूं ही ना गुजर जाए जिंदगी तमाम है
इम्तिहान से डरता नहीं हूं मैं
तूफानों से रूकता नहीं हूं मैं
सिर्फ मां के निस्वार्थ प्रेम को
भूलता नहीं हूं मैं
फिर कैसे उन्मुख हो जाऊं
कैसे कर्तव्य विमुख हो जाऊं
जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं
25 comments:
ek behtreen rachna likhi hai.......maa baap ke rin se urin hona , unke dard ko mehsoos karna ...........aapne jeevan ke yatharth ko utar diya hai.
Bahut badhiya baat kahe hai aap kavita me par jindagi ki raah me aise aise mod aate rahate hai jab hame apno se hi door jana padata hai..
bahut badhiya rachana...badhayi..
जीवन की मजबूरियाँ ऐसी होती हैं कि हमें अनेक समझौते करने होते हैं. जितना भी अधिक से अधिक कर पायें, करिये लेकिन चलते जाने का नाम ही जीवन है.
" जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं"
चाहे जितना भी वक्त मिल जाये, यह कभी नहीं हो सकता. माता पिता के ऋण से आजतक कोई उऋण हुआ है भला?
बहुत ही सुन्दर मनो भाव अतिसुन्दर!
जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं"
ऐसा सम्भव ही नही है !
कविता के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
बहुत ही मनभावन कविता है
यही जीवन है
ज़िंदगी की जद्दोजहद के बीच कर्त्तव्य की याद बेहद छटपटाती है।
बहुत ही मनभावन कविता
बी एस पाबला
ham logon ki yahi kahani hai...
yahi pareshani hai....
kya kiya ja sakta hai...
मोहन भाई बहुत सी मजबुरिया ऎसी ही होती है, जो मां बाप की सेवा करना चाहते है, भगवान उन्हे मजबुर कर देता है, ओर जिन के पास समय होता है उन्हे मां बाप की कदर नही होती.... बस जिन्दगी इसी का नाम है...
बहुत सुंदर कविता के भाव है, अच्छा लगा, कुछ दर्द सा सिमट आया...
धन्यवाद
Behad sundar abhivyakti...dil ko chhuti panktiyan.
बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! दिल को छू गई आपकी ये शानदार रचना! दशहरे की हार्दिक शुभकामनायें!
वाह मौहन जी क्या खूब कविता कही है वाह....
-bahut achchhee kavita Mohan ji.
-विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें.
Abhaar
भूलता नहीं हूं मैं
फिर कैसे उन्मुख हो जाऊं
कैसे कर्तव्य विमुख हो जाऊं
जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं
माता-पिता की सेवा में समर्पित रचना ....!!
दूर रहते हुए भी आपके मन के ख्यालात भी उनकी सेवा जैसे ही तो हैं .....!!
हाँ सुना है ताऊ जी आपसे नाराज़ हैं क्या बात हो गई ....???
इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई!
असत्य पर सत्य की जीत के पावन पर्व
विजया-दशमी की आपको शुभकामनाएँ!
saarthak rachnaa......
jivan ki majburi par likhi behatrin rachna
" जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं"
क्या बात कही है मित्र!
bahut marmik kavy rachna hai.
mn ki kasak ko shabdoN meiN
pirone ki prakriyaa hi aapki rachna-sheelta ki parichayak bn gayi hai
achhe aur nek khayaalaat ke liye abhivaadan svikaareiN
---MUFLIS---
बहुत सुन्दर...
" जिंदगी कुछ वक्त और दे दे
मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो जाऊं"
इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई...
Achha laga aapke maan me maa-pita k liye izzat k sath sath pyaar bhi dekh kar...sundar rachna...
Mohan जी बहुत दिनों से आप ने कुछ नया post नहीं किया.
आप को और parivar में सभी को दिवाली की dher sari शुभकामनायें.
Bahut saare kyon leke ham jeete rahte hain..shayad hareke jeevan kee baat kahee aapne..kab mukammal jahan mila?
बहुत सुंदर कविता के भाव है, अच्छा लगा, कुछ दर्द सा सिमट आया...
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