Tuesday, 6 July 2010

उदासी का आलम

आज तुम उदास हो
मैं भी उदास हूँ
सारा जहाँ उदास है

इस उदासी को दूर कर दो
अपनी एक मुस्कराहट देकर

सूरज निकला
लेकिन
देखकर तुम्हारी उदासी का आलम
वों दमकना भूल गया
भूल गया की उसे
करना है रोशन जहाँ को
पर कर न सका रोशन
देखकर तुम्हारी उदासी का आलम

बादल आये
घन घोर घटायें लाये
पर बरस न सके
देखकर तुम्हारी उदासी का आलम
बरसना ही भूल गए

एक रहम तुम
जहाँ पर कर दो
करने दो रोशन जहाँ को
बरसने दो बादलों को
तोड़कर तुम अपनी
उदासी का आलम

8 comments:

Alpana Verma अल्पना वर्मा said...

इतनी खूबसूरत कविता पढकर उनकी ,आपकी ,इस जहाँ की उदासी का आलम ज़रूर दूर होगा.
अच्छी भावाभिव्यक्ति की है.

समय चक्र said...

सुन्दर भावाभिव्यक्ति....

राजकुमार सोनी said...

आपकी रचना बहुत ही शानदार है.

पंकज मिश्रा said...

क्या बात है! शानदार रचना

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

खूबसूरत!

vijaymaudgill said...

kya baat bahut khoob mohan. ek share apke liye

मुद्दत बीत गई उनको देखे हुए
शब्दों ने आज उनका अक्स घड़ा है।
दिल ने चाहा आंखों में समा लूं
आंसूओं ने सिर इल्ज़ाम धरा है।

फ़िरदौस ख़ान said...

अति सुन्दर...भावपूर्ण रचना...

Urmi said...

बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना लिखा है आपने! बधाई!