Thursday, 5 November 2009

पेट की खातिर या ठंड की खातिर

किसी काम से दिल्‍ली जा रहा था। रास्‍ते में आधी रात को एक स्‍टेशन पर गाडी रूकी। आंख खुल गई। तो बाहर जो नजारा देखा उसे आपके सामने प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

सुबह सुबह की मीठी मीठी
कुनकुनी सी ठंड
तन पर नाम मात्र कपडे
कंपकपाता जिस्‍म
सिकुड रहा है
अपने आप में
हाथ पेट की खातिर
आ रहा है चिथडों से बाहर
कोई राही
दे दे उसे रहम
राही उतरा एक
काम किया नेक
उतार कंबल अपना
ओढाया उसे
अब हाथ अंदर चला गया कंबल के
पेट की खातिर नहीं
ठंड से बचने की खातिर

6 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

असहायता के दो बिन्दुओ का सुन्दर चित्रण

अनिल कान्त said...

waah !!

नीरज गोस्वामी said...

अहहहः...अद्भुत रचना...वाह...मोहन जी वाह...

दुष्यंत कुमार जी ने सही ही कहा है:-
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

नीरज

Urmi said...

वाह मोहन जी आपने बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है! बहुत बढ़िया लगा!

Rajeysha said...

उपस्‍थि‍त।

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।