कुछ लोग जमाने में ऐसे भी तो होते हैं
दफ्तर में जो हंसते हैं घर जाके वो रोते हैं
बीवी की नजरों में अच्छे हैं वो शौहर
बच्चों के कपड़ों को, जो शौक से धोते हैं
बच्चों के कपड़ों को, जो शौक से धोते हैं
रातभर बीवी की खिदमत में जुटते हैं
जाते ही वो दफ्तर में आराम से सोते हैं
कुर्सी पर लदे रहना, बस फितरत है इनकी
कुर्सी के ये खटमल, बेपैंदी के लौटे हैं
पंखों में परिंदों जैसी उड़ने की तमन्ना है
ये बात क्या समझेंगे जो पिंजरे के तोते हैं
सीने में हिमालय की कुल्फी के खजाने हैं
क्यों खवाब में चुस्की के पलकों को भिगोते हैं
ये लाइन maine http://gauravkumra84.blogspot.com/ is blog se li hain so koi bhi inhe anyatha na le
7 comments:
ha ha ha ha ha ha bhut khub
regards
सही बात...तरह तरह के लोग है इस दुनिया में....बढ़िया कविता..धन्यवाद जी
क्या मोहन जी, चुप नहीं रह सकते थे क्या ? बात को सार्वजनिक करना जरूरी था क्या ? हा-हा-हा-हा-हा !
" बंद मुट्ठी लाख की
खुल गई तो फिर खाक की "
वह! क्या बखिया उधेड़ी है ! कुछ लोग नहीं अधिकतर ऐसे ही हैं .
" haaaaaaaaa ..ha ...adhiktar log aise hi hai sir bahut hi badhiya rachana sir ."
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
वाह बहुत बढ़िया लगा! बिल्कुल सही बात है और अक्सर ऐसे ही लोग नज़र आते हैं! अत्यंत सुन्दर रचना!
bahut hi mazedaar kavita hai Guarav ki!
dukhbhari dastan kahanaa jyada behtar hoga!!nahin???:)
[Ye posts meri yahan feed mein nahin aayin..iseeliye miss ho gayee.]
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